Monday 12 October 2020

माँ शारदे का पुजारी

माँ शारदे का पुजारी 

साहित्य समाज का आईना होता है और साहित्यकार अपनी लेखनी के माध्यम से सामाजिक गतिविधियों का आईना समाज को दिखाना चाहता है। वह अपने विचारों को कलम से बांधकर दूर दूर तक पहुंचाना चाहता है, लेकिन कहते हैं कि जहां मां सरस्वती का वास होता है, वहां माता लक्ष्मी का पदार्पण नहीं होता। मां शारदे का पुजारी लेखक, नई-नई रचनाओं का सृजन करने वाला, समाज को आईना दिखाकर उसमे निरंतर बदलाव लाने की कोशिश में रत, ज़िन्दगी भर आर्थिक कठिनाइयों से जूझता रहता है।

इसी आर्थिक मजबूरी के चलते कई कलमकार अपने विचारों को पुस्तक के रूप में प्रकाशित नहीं कर पाते। उनके लिए अपनी अभिव्यक्ति को प्रकाशित करने के लिए साझा संकलन या अपने साथी रचनाकारों की रचनाओं के साथ पुस्तक का प्रकाशन एक सुखद विकल्प है, जिसके लिए उन्हें थोड़ी बहुत सहयोग राशि व्यय करनी पड़ती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि अगर कोई उच्च कोटि की रचना का रचनाकार है, तो वह सम्मान पाने का हकदार है, चाहे उसकी रचनाएं सहयोग राशी लेकर प्रकाशित हुई हों, लेकिन उनकी उत्कृष्ट रचनाएं समाज के उत्थान या समाज को नई दिशा की ओर लेकर जाने वाली होनी चाहिए।

रचनाकार द्वारा सृजन की गई शक्तिशाली रचना समाज एवं देश में क्रान्ति तक ला सकती है। गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरतचंद्र जी, मुंशी प्रेमचंद जी जैसे अनेक लेखक हिंदी साहित्य में जीती जागती मिसाल हैं, जिन्होंने समाज में अपनी लेखनी के माध्यम से जागृति पैदा की थी। समय बदला, समाज का स्वरूप बदला और अब तो नये लेखकों की बाढ़ सी आ गई है। साहित्य लेखन में भी बदलाव आने लगा और हर कोई अपनी रचनाओं को सहयोग राशि द्वारा प्रकाशित करवाने की होड़ में जुट गया। अक्सर सहयोग राशि देकर ऐसी अनेक रचनाएं प्रकाशित होने लगी हैं, जो साहित्य के मापदण्ड के पैमाने पर सही नहीं उतरतीं और साहित्य का मानक स्तर गिर रहा है।

ऐसे निम्नस्तरीय साहित्य और उनके रचनाकारों को सम्मानित करने का और उनका सम्मान पाने का कोई औचित्य ही नहीं रह जाता। यह तो सम्मान खरीदने जैसा हो गया। सहयोग राशि दो, रचना प्रकाशित करवाओ और सम्मान पाओ, जैसा कि अक्सर देखने में आ रहा है, जो नहीं होना चाहिए।

रेखा जोशी 

1 comment: