खून पसीना कर अपना
दो जून की रोटी खाते हैं
जिस दिन मिलता
कोई काम नहीं
भूखे ही सो जाते है
रहने को मिलता कोई घर नहीं
सर ऊपर कोई छत नहीं
श्रम दिवस मना कर इक दिन
भूल हमें सब जाते हैं
किसे सुनाएँ इस दुनिया में
हम दर्द अपना कोई भी नहीं
इस जहां में हमदर्द अपना
गिरता है जहाँ पसीना अपना
पहन मुखौटे नेता यहां पर
सियासत करने आ जाते हैं
हमारे पेट की अग्नि पर
रोटियाँ अपनी सेकते हैं
मेहनत कर हाथों से अपने
जीवन यापन करते हैं
नहीं फैलाते हाथ अपने
अपने दम पर जीते हैं
रेखा जोशी
श्रम सुंदर है । मानसिक बौद्धिक श्रम को हर कोई महत्व देता है पर उसको भूल जाते है जो अपना खून - पसीना बहा हमारे लिए सुख सुविधाएँ जुटाते है और अपने परिवार के लिए रोटी । उसमें सुंदरता की कल्पना का होना कभी कभी सहज स्वीकार्य नहीं हो पाता । श्रम के दोनों रुप सुंदर है ,पर एक को महत्व और दूसरे की अवहेलना छल है । समाज को चाहिए कि वह शारीरिक श्रम करने वाले मजदूरों के प्रति अपनी। मानवीय संवेदनशीलता को ना भूले । श्रम जीवन के प्रति आस्था और ईश्वर की पूजा भी अतएव उसे उसके पूर्णरुप में ही अपनाना चाहिए। उसमें भेदभाव करना जीवन के प्रति भेदभाव करना है ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर
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