Tuesday 25 November 2014

धधक उठी सीने में लपटे ज्वाला की


धर  चंडी का
विकराल रूप
जल रही थी वह
बदले की आग में
कब तक
करती सहन वह
अपमान
तन  मन आत्मा का
झेल रही थी वह
क्रूरता की परकाष्ठा
थी सुलग रही
भीतर ही भीतर
अब पोंछ लिए
 नैनों से आँसू अपने
अंगारों से लगे
दहकने  दो नयन उसके
क्रोध की अग्नि से
धधक उठी  सीने में
लपटे ज्वाला की
कर स्वाहा बुझेगी
यह अग्नि  नैनों की
जब  फूट पड़ेगी बन
जलधारा नैनो की

रेखा जोशी




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