Sunday, 25 October 2020

अवचेतन मन की अदृश्य शक्ति

अवचेतन मन की अदृश्य शक्ति

अगर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से समझा जाए तो हमारी नींद की विभिन्न अवस्थाएं होती है और विभिन्न अवस्थाओं के समय दिमाग में उत्पन्न हो रही तरंगों की आवृत्ति को नापा जा सकता हैl जब हम सो रहे होते हैं तब आवृति कम हो जाती है और सुप्त अवस्था में किसी खास आवृत्ति पर हमें सपने दिखाई देते हैं l सुप्त अवस्था में हमारा अवचेतन मन जागृत होता है, यहां पर मैं एक सत्य घटना का उल्लेख करना चाहूँ गी l

एक औरत को उसका पति बहुत परेशान करता था, वह हर रोज़ शराब पी कर उसे मारता था और वह अबला नारी उस समय तो कुछ कर नहीं पाती थी लेकिन उसके भीतर क्रोध का ज्वालामुखी सुलगता रहता था l जब वह व्यक्ति सो जाता था तो वह औरत हर रोज़ उसके कान में बुदबुदाने लगती थी कि वह शराब के नशे में सड़क पर चल रहा है और सामने से ट्रक ने आ कर उसे टक्कर मार कर उसकी जान ले ली l न जाने कितने दिन यह क्रम यूँही चलता रहा और वह औरत उस व्यक्ति के कान में वही शब्द बार बार दोहराती रहीl उस औरत ने अनजाने में ही उस व्यक्ति के अवचेतन मन को आदेश दे कर उस घटना के अंजाम तक पहुंचा दिया, एक दिन सच में बिलकुल वैसा ही हुआ जैसा वह औरत अपने पति के कान में कहा करती थी, वह व्यक्ति शराब के नशे में सड़क पर जा रहा था और एक ट्रक ने उसे मार गिराया और उस व्यक्ति की घटना स्थल पर ही मृत्यु हो गई l इस घटना के बाद उस औरत को बहुत पछतावा हुआ और उसकी मौत का कारण स्वयं को समझने लगी l दरअसल उस महिला ने अपने पति के अवचेतन मन का वशीकरण कर उसे आदेश दे कर उस दुर्घटना को अंजाम दे दिया था l

रेखा जोशी 

Friday, 16 October 2020

मुक्तक



जिंदगी है इक प्यारा सफर 
जी लो इसे तुम होकर निडर 
राह   में    होगी  गंदगी  भी 
साफ भी करना  होगा गटर

रेखा जोशी 

Monday, 12 October 2020

बिटिया

आई है बिटिया अँगना में मेरे
घर की दीवारें लगी है महकने
देखती हूँ नन्ही परी को मै जब
तैरता नयन में मेरा  वो बचपन
पापा का प्यार और माँ का दुलार
वही प्यारे पल छिन फिर लौट आए 
चहकती मटकती अँगना में खेले 
सुबह और शाम वह सबको नचाये
माँ के दुपट्टे से संवारे खुद को 
साड़ी पहन कर वह चोटी लहराये 
भरी दोपहर में छुपना अँगना में
वो घर घर  खेलना   संग गुडिया के
घर आँगन मेरा लगा है चहकने
जब मधुर हसी से वोह खिलखिलाये
आई है बिटिया अँगना में मेरे
घर की दीवारें लगी है महकने

रेखा जोशी

शीश अपना ईश के आगे झुकाना चाहिए


शीश अपना ईश के आगे झुकाना चाहिए
नाम मिलकर हर किसी को साथ गाना चाहिए
....
पीर हरता हर किसी की ज़िंदगी में वह सदा
नाम सुख में भी हमें तो याद आना चाहिए
.....
पा लिया संसार सारा नाम जिसने भी जपा
दीप भगवन नेह का मन में जलाना चाहिए
.....
गीत गायें प्रेम से दिन रात भगवन हम यहाँ
प्रीत भगवन आप को भी तो निभाना चाहिए
....
हाथ अपने जोड़ कर हम माँगते तुमसे दया
प्रभु कृपा करना हमें अपना बनाना चाहिए
रेखा जोशी

माँ शारदे का पुजारी

माँ शारदे का पुजारी 

साहित्य समाज का आईना होता है और साहित्यकार अपनी लेखनी के माध्यम से सामाजिक गतिविधियों का आईना समाज को दिखाना चाहता है। वह अपने विचारों को कलम से बांधकर दूर दूर तक पहुंचाना चाहता है, लेकिन कहते हैं कि जहां मां सरस्वती का वास होता है, वहां माता लक्ष्मी का पदार्पण नहीं होता। मां शारदे का पुजारी लेखक, नई-नई रचनाओं का सृजन करने वाला, समाज को आईना दिखाकर उसमे निरंतर बदलाव लाने की कोशिश में रत, ज़िन्दगी भर आर्थिक कठिनाइयों से जूझता रहता है।

इसी आर्थिक मजबूरी के चलते कई कलमकार अपने विचारों को पुस्तक के रूप में प्रकाशित नहीं कर पाते। उनके लिए अपनी अभिव्यक्ति को प्रकाशित करने के लिए साझा संकलन या अपने साथी रचनाकारों की रचनाओं के साथ पुस्तक का प्रकाशन एक सुखद विकल्प है, जिसके लिए उन्हें थोड़ी बहुत सहयोग राशि व्यय करनी पड़ती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि अगर कोई उच्च कोटि की रचना का रचनाकार है, तो वह सम्मान पाने का हकदार है, चाहे उसकी रचनाएं सहयोग राशी लेकर प्रकाशित हुई हों, लेकिन उनकी उत्कृष्ट रचनाएं समाज के उत्थान या समाज को नई दिशा की ओर लेकर जाने वाली होनी चाहिए।

रचनाकार द्वारा सृजन की गई शक्तिशाली रचना समाज एवं देश में क्रान्ति तक ला सकती है। गुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरतचंद्र जी, मुंशी प्रेमचंद जी जैसे अनेक लेखक हिंदी साहित्य में जीती जागती मिसाल हैं, जिन्होंने समाज में अपनी लेखनी के माध्यम से जागृति पैदा की थी। समय बदला, समाज का स्वरूप बदला और अब तो नये लेखकों की बाढ़ सी आ गई है। साहित्य लेखन में भी बदलाव आने लगा और हर कोई अपनी रचनाओं को सहयोग राशि द्वारा प्रकाशित करवाने की होड़ में जुट गया। अक्सर सहयोग राशि देकर ऐसी अनेक रचनाएं प्रकाशित होने लगी हैं, जो साहित्य के मापदण्ड के पैमाने पर सही नहीं उतरतीं और साहित्य का मानक स्तर गिर रहा है।

ऐसे निम्नस्तरीय साहित्य और उनके रचनाकारों को सम्मानित करने का और उनका सम्मान पाने का कोई औचित्य ही नहीं रह जाता। यह तो सम्मान खरीदने जैसा हो गया। सहयोग राशि दो, रचना प्रकाशित करवाओ और सम्मान पाओ, जैसा कि अक्सर देखने में आ रहा है, जो नहीं होना चाहिए।

रेखा जोशी