शीर्षक। पेड़ की व्यथा
किसे सुनाऊँ मैं व्यथा अपनी
किस हाल में हूँ मैं अब
कभी था मैं भी जीवंत
झूम उठती थी तब हरी भरी
फूलों फलो से लदी डालियाँ मेरी
खड़ा था सीना तान कर अपना
नहीं डरा तूफ़ानों से कभी
परिंदों के घरौंदों से भरा था तन मेरा
था गूँजता पंछियों का कलरव
सुबह शाम
चिड़ियों की चहक, कोयल की कुहूक
थिरकता था मधुर संगीत
शीतल हवाओं में
झूम उठती थी तब हरी भरी
फूलों फलो से लदी डालियाँ मेरी
भरी दोपहरी में कभी
शीतल छाया से मेरी
पथिक कोई थका हारा र
घड़ी दो घड़ी कर विश्राम
पा कर सकून
निकल पड़ता राह अपनी
झूम उठती थी तब हरी भरी
फूलों फलो से लदी डालियाँ मेरी
दिया अपना सब कुछ
मानव तुम्हें
काट काट कर जंगल तुमने
अंग भंग कर दिया मेरा
किसे सुनाऊँ मैं व्यथा अपनी
किस हाल में हूँ मैं अब
कभी था मैं भी जीवंत
झूम उठती थी तब हरी भरी
फूलों फलो से लदी डालियाँ मेरी
रेखा जोशी
सचमुच पेड़ की व्यथा कौन सुने...।
ReplyDeleteसंदेशयुक्त रचना।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १४ अप्रैल २०२३ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
हर कथा की एक ही व्यथा
ReplyDeleteसामयिक चिन्तन का सुन्दर चित्रण
सुन्दर रचना
ReplyDeleteवाह!बहुत खूब!
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