गरीब की यहां अजब हस्ती हैं
खून की कीमत बहुत सस्ती है
,
कहती दर्द ओ ग़म की दास्तां
ग़म की बस्ती अजीब बस्ती है
,
बहुत रुलाते भूख के आंसू
पेट की ज्वाला नहीं बुझती है
,
जीवन की नाव पार लगे कैसे
टूटी पतवार और टूटी कश्ती है
,
मिलती उन्हे दर दर की ठोकरें
बार बार चोट यहां रिसती है
रेखा जोशी
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति 102वां जन्म दिवस : वीनू मांकड़ और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान जरूर बढ़ाएँ। सादर ... अभिनन्दन।।
ReplyDeletebahut khoob
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteसादर आभार harshvardhan जी onkar जी, sushil जी 🙏
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