जो न समझे दर्द उसको आदमी कैसे कहूँ
जी सके हम जो नही वह ज़िंदगी कैसे कहूँ
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आसमाँ पर चाँद निकला हर तरफ बिखरी किरण
जो न उतरे घर हमारे चाँदनी कैसे कहूँ
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मुस्कुराती हर अदा तेरी सनम जीने न दे
हाल अपने की हमारे बेबसी कैसे कहूँ
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राह मिल कर हम चले थे ज़िंदगी भर के लिये
मिल सके जो तुम न हम को वह कमी कैसे कहूँ
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हो गया रोशन जहाँ जब प्यार मिलता है यहाँ
जो न आई घर हमारे रौशनी कैसे कहूँ
रेखा जोशी
सुन्दर रचना
ReplyDeleteसादर आभार आपका 🙏
Deleteउम्दा ग़ज़ल
ReplyDeleteशुक्रिया आ शास्त्री जी
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