न जाने कहाँ चली गई ज़िंदगी
मेरे घर के पिछवाड़े आँगन में
सुबह शाम पंछियों का चहचहाना
शहतूत के घने पेड़ पर
जो था रैन बसेरा
अनेक जीवों का
दूर करता था जो सूनापन
बस्ती थी जहाँ अनेक ज़िंदगियाँ
है आज वीरान सुनसान
लेकिन आता याद वही कलरव
चहचहाना उनका
न जाने कहाँ चली गई ज़िंदगी
उनके साथ
रेखा जोशी
बहुत सुंदर
ReplyDeleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteआदरणीया मैम, सादर प्रणाम । आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ । अतयन्त सुंदर और भावपूर्ण रचना है । सच प्रकृति के समीप रहना ही ज़िंदगी है, आज हम मनुष्य वृक्ष काट 0 काट कर माता प्रकृति को दुखी करते रहते हैं और हर दिन उनसे और दूर होते जा रहे हैं, हम यह समझ ही नहीं पा रहे कि हम क्या खो रहे हैं और जब समझ पाएंगे, तब तक शायद बहुत देर हो चुकी होगी। आपकी इस सुंदर रचना के लिए आपका बहुत बहुत आभार एवं आपको पुनः प्रणाम ।
ReplyDeleteवक्त के साथ सब याद आता है और वक्त एक जैसा नहीं रहता। मन के भाव दर्शाती सुंदर रचना।
ReplyDeleteकल तक थी बस्तियाँ जहाँ ,आज वीराना है ....जीवन आना -जाना है ......सुंदर सृजन!
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