जब मै बचपन में अपनी माँ की उंगली पकड़ कर चला करती थी ,बात तब की है ,हमारे पडोस में एक बूढी अम्मा रहा करती थी ,उन्हें हम सब नानी बुलाते थे | जब भी मेरी माँ उनसे मिलती ,वो उनके पाँव छुआ करती थी और नानी उन्हें बड़े प्यार से आशीर्वाद देती और सदा यही कहती ,''दूधो नहाओ और पूतो फलो ''|उस समय मेरे बचपन का भोला मन इस का अर्थ नहीं समझ पाया था ,लेकिन धीरे धीरे इस वाक्य से मै परिचित होती चली गई, ''पूतो फलो '' के आशीर्वाद को भली भाँती समझने लगी | क्यों देते है ,पुत्रवती भव का आशीर्वाद ,जब की एक ही माँ की कोख से पैदा होते है पुत्र और पुत्री ,क्या किसी को पुत्री की कोई चाह नहीं ? मैने अक्सर देखा है बेटियां ,बेटों से ज्यादा भावनात्क रूप से अपने माता पिता से जुडी होती है |एक दिन अपनी माँ के साथ मुझे अपने पडोस में एक लडकी की शादी के सगीत में जाने का अवसर प्राप्त हुआ ,वहां कुछ महिलायें 'सुहाग 'के गीत गा रही थी ,''साडा चिड़ियाँ दा चम्बा वे ,बाबल असां उड़ जाना |''जब मैने माँ से इस गीत का अर्थ पूछा तो आंसुओं से उसकी आखे भीग गई | यही तो दुःख है बेटियों को पाल पोस कर बड़ा करो और एक दिन उसकी शादी करके किसी अजनबी को सोंप दो ,बेटी तो पराया धन है , उसका कन्यादान भी करो,साथ मोटा दहेज भी दो उसके बाद उसे उसके ससुराल वालों के भरोसे छोड़ दो,माँ बाप का फर्ज़ पूरा हो गया ,अच्छे लोग मिले या बुरे यह उसका भाग्य ,बेटी चाहे वहा कितनी भी दुखी हो ,माँ बाप उसे वहीं रहने की सलाह देते रहेगे ,उसे सभी ससुराल के सदस्यों से मिलजुलकर रहने की नसीहत देते रहे गे |माना की हालात पहले से काफी सुधर गये है लेकिन अभी भी समाज के क्रूर एवं वीभत्स रूप ने बेटी के माँ बाप को डरा कर रखा हुआ है | बलात्कार ,दहेज़ की आड़ में बहुओं को जलती आग ने झोंक देना ,घरेलू हिंसा ,मानसिक तनाव इतना कि कोई आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाए ,इस सब के चलते समाज के इस कुरूप चेहरे ने बेटियों के माँ बाप के दिलों को हिला कर रख दिया है ,उनकी मानसिकता को ही बदल दिया है,विक्षिप्त कर दिया है |तभी तो समाज और परिवार के दबाव से दबी,आँखों में आंसू लिए एक माँ अपनी नन्ही सी जान को कभी कूड़े के ढेर पर तो कभी गंदी नाली में फेंक कर,याँ पैदा होने से पहले ही उसे मौत की नीद सुलाकर सदा के लिए अपनी ही नजर में अपराधिन बना दी जाती है |ठीक ही तो सोचते है वो लोग '',ना रहे गा बांस और ना बजे गी बासुरी ''उनके विक्षिप्त मन को क्या अंतर पड़ता है ,अगर लडकों की तुलना में लडकियां कम भी रह जाएँ ,उन्हें तो बस बेटा ही चाहिए ,चाहे वह बड़ा हो कर कुपूत ही निकले ,उनके बुढापे की लाठी बनना तो दूर ,लेकिन उनकी चिता को अग्नि देने वाला होना चाहिए |जब तक सिर्फ बेटों की इच्छा और कन्याओं की हत्या करने वाले माँ बाप के विक्षिप्त मानसिकता का सम्पूर्ण बदलाव नहीं होता तब तक बेचारी कन्याओं की इस सामाजिक परिवेश में बलि चढती ही रहे गी |नारी सशक्तिकरण के लिए कितने ही कानून बने ,जो अपराधियों को उनके किये की सजा देते रहते है,भले ही आँखों पर पट्टी बंधी होने के कारण कभी कभी कानून भी उन्हें अनदेखा कर देता है | समाज की विक्षिप्त मानसिकता में बदलाव लाना हमारी ज़िम्मेदारी है ,जागरूकता हमे ही लानी है ,लेकिन कब होगा यह ? हमारे समाज में बेटी जब मायके से विदा हो कर ससुराल में बहू के रूप में कदम रखती है तो उसका एक नया जन्म होता है ,रातों रात एक चुलबुली ,चंचल लड़की ,ससुराल की एक ज़िम्मेदार बहू बन जाती है ,और वो पूरी निष्ठां से उसे निभाती भी है ,क्यों की बचपन से ही उसे यह बताया जाता है की ससुराल ही उसका असली घर है ,वहीउसका परिवार है ,लेकिन क्या ससुराल वाले उसे बेटी के रूप में अपनाते है ? बेटी तो दूर की बात है ,जब तक वो बेटे की माँ नहीं बनती उसे बहू का दर्जा भी नहीं मिलता | अभी हाल ही में हमारे पड़ोसी के बेटे की शादी हुयी ,नयी नवेली दुल्हन की मुख दिखाई में मै भी उसे आशीर्वाद देने पहुंची ,जैसे ही उसने मेरे पाँव छुए ,मेरे मुख से भी यही निकला ,''पुत्रवती भव '' |
"कटु सत्य" - प्रेरक प्रस्तुति
ReplyDeleteTHANKS RAKESH JI
ReplyDeleteapka bahut bahut dhnyvaad yashoda ji
ReplyDeleteयही मानसिकता पुत्रियों के लिए अभिशाप है । सटीक विचार ।
ReplyDeleteDHNYVAAAD SANGITA JI
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