Thursday, 26 April 2018

मुसाफिर हूँ इक मै

मुसाफिर हूँ इक मै
ज़िन्दगी के सफर में 
थक चुका अब चलते चलते
कुछ पल ठहर कर
देखा जो पीछे
नीले अंबर ने बदल ली
चादर अपनी
काली स्याह धुआं धुआं सी
है अब छत अपनी
याद आता है वो प्यारा सा
खिलखिलाता बचपन
जब खेला करते थे हम
नीले गगन तले
खिलखिलाते थे वो
जवानी में
हँसी के गलियारे भी
देख रहे अब
चुपचाप खामोश से
धीमी हो गयी
अब कदमों की आहट
साँझ थी अब सामने
खड़ी बाहें पसारे
चलने लगा मै उस ओर
धीरे धीरे
हाथों में अपने ले कर
ज़िन्दगी का बुझता दिया
अपने जीवन सफर में
थरथरा रही लौ जिसकी
न जाने कब तक जले
और मिल जाये
इस सफर को मंज़िल

रेखा जोशी

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