टूट चुकी
कमर
बेचारे
असहाय
आम आदमी
की
ज़िंदगी के
बोझ तले
पिस रहा
सुबह शाम
और
रहा खींचता
वह
चादर अपनी
काट दी
और
फाड़ दी
चादर उसकी
महंगाई
और
भ्रष्टाचार
सरीखे
दानवों ने
फिर भी
है संघर्षरत
जीतने को
जंग
ज़िंदगी की
लेकिन
कब तक
आखिर
कब तक
यूँही
पिसता रहेगा
एक बेचारा
आम आदमी ?
रेखा जोशी
कमर
बेचारे
असहाय
आम आदमी
की
ज़िंदगी के
बोझ तले
पिस रहा
सुबह शाम
और
रहा खींचता
वह
चादर अपनी
काट दी
और
फाड़ दी
चादर उसकी
महंगाई
और
भ्रष्टाचार
सरीखे
दानवों ने
फिर भी
है संघर्षरत
जीतने को
जंग
ज़िंदगी की
लेकिन
कब तक
आखिर
कब तक
यूँही
पिसता रहेगा
एक बेचारा
आम आदमी ?
रेखा जोशी
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