Monday, 31 March 2014

अंदाज़ अपना अपना -मूर्ख दिवस पर


यह मेरी पूर्व प्रकाशित रचना है

यादों के पिटारे में झांक के देखा तो मानस पटल पर कुछ वर्ष पहले की तस्वीरें उभरने लगी | मौसम करवट बदल रहा था ,सुहावनी सुबह थी और हल्की ठंडी हवा तन मन को गुदगुदा रही थी | गरमागर्म चाय की चुस्कियों के साथ हाथ में अखबार लिए मै उसे  बरामदे में बैठ कर पढने लगी | मौसम इतना बढ़िया था कि वहां से उठने का मन ही नहीं हो रहा था ,घडी पर नज़र डाली तो चौंक पड़ी ,आठ बज चुके थे ,''अरे बाबा नौ बजे तो मेरा पीरियड है ''मन ही मन बुदबुदाई ''|जल्दी से उठी और कालेज जाने कि तैयारी में जुट गई |

 प्रध्यापिका होने के नाते हमे कालेज पहुंच कर सब से पहले प्रिंसिपल आफिस में हाजिरी लगानी पडती थी ,जैसे ही मै वहां पहुंची तो प्रिंसिपल के आफिस के बाहर काला बुरका पहने एक महिला खड़ी थी | एक सरसरी सी नजर उस पर डाल मै आफिस के भीतर जाने लगी ,तभी उसने पीछे से मेरे कन्धे को थपथपाया | मैने मुड कर उसकी ओर देखा ,उसने अपना सिर्फ एक हाथ जिसमे एक पुराना सा कागज़ का टुकड़ा था मेरी ओर बढाया,मैने उससे वह कागज़ पकड़ा ,उसमे टूटी फूटी हिंदी में लिखा हुआ था ,''मै  बहुत ही गरीब हूँ ,मुझे पति ने घर से निकल दिया है ,मेरी मदद करो '' मैने वह कागज़ का टुकड़ा उसे लौटाते हुए उसे उपर से नीचे तक देखा ,वह ,पूरी की पूरी काले लबादे में ढकी हुई थी ,उसके पैरों में टूटी हुई चप्पल थी ,जिस हाथ में कागज़ था ,उसी हाथ की कलाई में हरी कांच की चूड़िया झाँक रही थी |मै उसे बाहर कुर्सी पर बिठा कर ,आफिस के अंदर चली आई|

आफिस के अंदर लगभग सभी स्टाफ मेमबर्ज़ मौजूद थे | वहां खूब जोर शोर से चर्चा चल रही थी ,विषय था वही पर्दानशीं औरत ,हर कोई अपने अपने अंदाज़ में उसकी समीक्षा कर रहा था | किसी की नजर में वह असहाय थी ,किसी की नजर में शातिर ठग,कोई उसे कालेज से बाहर निकालने की बात कर रहा था तो कोई उसकी मदद करने की राय दे रहा था | अंत में फैसला हो गया ,उसे स्टाफ रूम में ले जाया गया और उसके लिए चाय नाश्ता मंगवाया गया ,पता नहीं बेचारी कितने दिनों की भूखी हो ,सभी स्टाफ मेमबर्ज़ से बीस बीस रूपये इकट्ठे किये गए और उन्हें एक लिफ़ाफ़े में डाल उसके हाथ में थमा दिया गया |तभी एक प्रध्यापिका ने उनके चेहरे से  पर्दे को उठा दिया ,यह कहते हुए ,''हम लेडीज़ के सामने यह पर्दा कैसा ''| उनका चेहरा देखते ही सब अवाक रह गये ,''अरे यह तो डा: मसेज़ शुक्ला है |पूरे स्टाफ की नजरें उनके चेहरे पर थी ,उनकी आँखों में थी  शरारत और होंठो पर हसीं,''हैपी अप्रैल फूल ,कहो कैसा रहा मेरा तुम सबको फूल बनाने का अंदाज़ |

 उन्होंने बुरका उतार कर एक ओर रख कर दिया और वो   खिलखिला के हंस पड़ी और उनके साथ साथ हम सब भी खिसियाए हुए हंसने लगे | डा मिसेज़ शुक्ला हमारी सहयोगी और अंग्रेजी विभाग की एक सीनियर प्रध्यापिका थी | उन्होंने उसी लिफ़ाफ़े में से बीस बीस के कई नोट निकाले और कंटीन में चाय पकौड़ों की पार्टी के आयोजन के लिए फोन कर दिया| वो सारा दिन हमने खूब मौज -मस्ती में गुज़ारा ,गीत संगीत के साथ गर्मागर्म चाय और पकौड़ों ने हम सब को अप्रैल फूल बना कर के भी आनंदित किया |डा मिसेज़ शुक्ला भले ही कुछ वर्ष पूर्व रिटायर हो चुकी है लेकिन उनका पूरे स्टाफ को ,''फूल'' बनाना हम सब को हमेशा याद रहे गा खासतौर पर अप्रैल की पहली तारीख को |    

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