Sunday, 20 July 2014

फैलते कंक्रीट के जंगल


फैलते कंक्रीट के जंगल 

ढलती शाम में  जब सूर्य देवता धीरे धीरे पश्चिम की ओर प्रस्थान किया करते  थे  तब नीतू का मन अपने फ्लैट में घबराने लगता । वह अपने बेटे के साथ अपने फ्लैट के सामने वाले पार्क में टहलने आ जाया करती थी । वहाँ खुली हवा में घूमना उसे बहुत अच्छा लगता था ,और वह ठीक भी था उसके घर में एक नन्हे नए मेहमान के लिए । टहलते हुए उसकी नज़र बेंच पर बैठे एक बुज़ुर्ग जोड़े पर पड़ी ,वह भी खुली जगह पर बैठ शीतल हवा का आनंद उठा रहे थे । एकाएक उसकी नज़र ऊँची ऊँची इमारतों पर पड़ी ,उसे ऐसा लगा जैसे वह इमारते बढ़ती जा रही है और वह फैलता कंक्रीट का जंगल उस पार्क की ओर बढ़ता जा रहा है ,हाँ उसके चारो ओर जैसे घुटन ही घुटन बढ़ने लगी है ,सांस रुकने लगी नीतू की । ''नही ,ऐसा नही हो सकता ''वह मन ही मन बुदबुदाने लगी । तभी वह तंद्रा  जाग गई ,सोच में पड़ गई ,''अगर यह कंक्रीट के जंगल बढ़ते गए तब क्या होगा हमारे बच्चों का और उस समय  हमारे जैसे बुज़ुर्ग स्वच्छ हवा के लिए कहाँ जायें गे ???

रेखा जोशी 

No comments:

Post a Comment