मेरे घर के पिछवाड़े
आँगन में सुबह शाम
पंछियों का चहचहाना
शहतूत के घने पेड़ पर
जो था रैन बसेरा
अनेक जीवों का
दूर करता
सूनापन
बस्ती थी जहाँ अनेक
ज़िंदगियाँ
है आज वीरान
खामोश सुनसान
खामोश सुनसान
लेकिन आता याद
वही कलरव
वही कलरव
चहचहाना उनका
न जाने
कहाँ चली गई
कहाँ चली गई
ज़िंदगी भी उनके साथ
रेखा जोशी
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