मै खड़ा यहाँ जाने कब से ,
अब सूखे भी न रहे पत्ते ,
डाली डाली सब सूख चुकी ,
मै खड़ा रहा फिर भी तन के।
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हैं याद मुझे दिन वे गुज़रे ,
सब ओर छटा वैभव बिखरे ,
सम्मोहित से सब रुक जाते ,
इस पथ से जो रही गुज़रे ।
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यह मस्त पवन लहरा जाती ,
अब नही मुझे सिहरा पाती ,
जाने कितने बीते बसंत .
न कभी धडकन भी हो पाती ,
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जाने कब तक मै खड़ा रहूँ ,
यूंही निष्फल निश्वास लिए
फूल खिलेंगे फिर यहां कभी ,
यह झूठा सा विशवास लिए
लेखक प्रो महेन्द्र जोशी
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