Monday, 25 April 2016

नमन नमन नमन

चलती फिरती
 ज़िंदगी की भीड़ में
खामोश
हो गई इक ज़िंदगी
मौत  की चादर ओढ़े
माटी में
मिलने को तैयार
तोड़ सब
रिश्ते नाते अपने
बंधन  मुक्त
छोड़ गई अपने पीछे
रोते  बिलखते
स्वजन
उजड़ी किसी मांग
उठा किसी के  सर से
उसके पिता का साया
भाई बन्धु देखते रहे
जलती अग्नि में
स्वाहा होती काया
अश्रु अविरल बहते रहे
क्या यही है मोह माया
है साँसों का खेल यह सब
साँस रुकी तो  सब खत्म
जाना  सबको इस जहाँ से
फिर  दुखी क्यों होता मन
जाने वाले को करो नमन
नमन नमन नमन

रेखा जोशी





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