Tuesday, 17 September 2013

भूख

भूख


''बेटा आज पता नही क्यों हलवा पूड़ी खाने का मन हो रहा है ,तनिक बना कर खिला दो न ,'' बूढ़ी अम्मा की आवाज़ ने मीरा को चौंका दिया । मीरा ने प्यार से अम्मा को अपने घर के भीतर बुला कर पूरी श्रधा से उसने बूढ़ी अम्मा  के आगे हलवा और पूड़ी बना कर परोस दिया |पता नही इस बुढ़ापे में शायद अम्मा की सारी की सारी इन्द्रिया उसकी जुबान के रस में केन्द्रित हो गई थी  जो वह आये दिन नयें नयें व्यंजनों की फरमाइश ले कर उसके दरवाज़े पर खड़ी हो जाती थी ,  ,कभी उसकी जिहा को आलू के गर्मागर्म परांठों  का स्वाद तरसाता था तो कभी गुलाब जामुन के मीठे रस के स्वाद को याद कर उसके मुह में पानी भर जाता था ,मीरा भी उसकी बहू और बेटे से छिप कर उसके मन की मुराद पूरी करती रहती थी ,लेकिन उसके पेट की भीख तो नित्य नये स्वादों में भटकती रहती थी । उस दिन मीरा ने अम्मा से पूछ ही लिया ,''अम्मा ,तुम अपनी  बहू से क्यूँ नही कहती ,वह भी तो  तुम्हे यह सब बना कर खिला सकती है ,''पूड़ी खाते खाते अम्मा के हाथ वहीं रुक गए,आँखें उपर कर मीरा को देखते हुए अम्मा बोली   ,''न बाबा न ,वह जो मुझे दलिया देती है ,उसे देना भी वह बंद कर देगी ,अरे बेटा वह तो फ्रिज  को ताला लगा कर जाती है,बाहर मेज़ पर रखे फलों की गिनती उसे सदा याद रहती है ,बेटा अगर वह कुछ बढ़िया सा खाना बनाती है तो मुझ पर  एहसान कर ऐसे देती है मानो किसी कुत्ते के आगे रोटी का टुकड़ा डाल रही हो ,छि ऐसे खाने को तो  किसी का दिल भी नही करेगा ,''कहते कहते अम्मा की आँखें नम हो गई |अम्मा तो पूड़ी हलवा खा कर मीरा को ढेरों आसीस  देती हुई अपने घर चली गई ,लेकिन मीरा के दिलोदिमाग में अनेक सवाल छोड़ गई ,माँ बाप बहुत  ही प्यार से अपने बच्चों को पाल पोस कर बड़ा  करते है लेकिन बच्चे अपने बुज़ुर्ग और बुढ़ापे से लाचार माता पिता को बिना उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाएं सेवा भाव से दो वक्त की रोटी देने से भी क्यों कतराने लगते है ?अम्मा की बाते मीरा के अंतर्मन को झकझोरने लगी ,किसी कुत्ते के सामने या किसी भिखारी के आगे रोटी फेंकना और अपने बुज़ुर्ग, माता पिता शरीर से लाचार ,जो अब उम्र के आखिरी  पड़ाव पर पहुंच चुके है ,उनको आदर सहित प्रेमपूर्वक दो जून खाना खिलाने  में जमीन आसमान का अंतर होता है ,क्या इसे आज के स्वार्थी बच्चे समझ पा रहें  है ,अपने ही पेट से जन्मे बच्चों के ऐसे रूखे ,संवेदन शून्य व्यवहार से न जाने कितने ही बुज़ुर्ग बूढ़े माँ बाप ,अम्मा की तरह खून के आंसू पी कर हर रोज़ अपने बच्चों से प्यार की आस लिए और आत्मसम्मान की  भूख से मरते हुए अपनी जिंदगी के बचे खुचे दिन गुज़ार रहें है |क्या यही है हमारी संस्कृति ?क्या हमारे बुज़ुर्ग सम्मान के हकदार नही है ?





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