आदरणीय श्री हरिवंशराय बच्चन जी की रचना मधु कलश से
मै थिर होकर कैसे बैठूँ
जब हो उठते पाँव चपल
मे मौन खड़ी किस भांति रहूँ
जब है बज उठते पग पायल
…
जब मधुघट के आधार बने
कर क्यों न झुकें झूमें घूमें
किस भांति रहूँ मै मुख मूँदें
जब उड़ उड़ जाता है अंचल
....
मै नाच रही मदिरालय में
मै और नहीं कुछ कर सकती
है आज गया कोई मेरे
तन में प्राणों में यौवन भर
…
है आज भरा जीवन मुझ में
है आज भरी मेरी गागर
हरिवंशराय बच्चन
मै थिर होकर कैसे बैठूँ
जब हो उठते पाँव चपल
मे मौन खड़ी किस भांति रहूँ
जब है बज उठते पग पायल
…
जब मधुघट के आधार बने
कर क्यों न झुकें झूमें घूमें
किस भांति रहूँ मै मुख मूँदें
जब उड़ उड़ जाता है अंचल
....
मै नाच रही मदिरालय में
मै और नहीं कुछ कर सकती
है आज गया कोई मेरे
तन में प्राणों में यौवन भर
…
है आज भरा जीवन मुझ में
है आज भरी मेरी गागर
हरिवंशराय बच्चन
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