Saturday, 11 July 2015

साँझ के बढ़ते अंधेरे में


लम्बी होती
परछाईयाँ
दिला रही एह्साह 
शाम के ढलने का 
हूँ उदास पर शांत 
ज़िंदगी की ढलती शाम 
आ रही करीब 
धीरे धीरे लेकिन
उम्र के इस पड़ाव पर 
पा रहीं सुकून 
मिला जो हमें
इक दूजे का साथ
साँझ के बढ़ते
अंधेरे  में 
रहे सदा हमारा
हाथों में हाथ

रेखा जोशी 

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