Tuesday, 21 April 2015

सार यही जीवन का

देखती हूँ हर रोज़ 
अपनी बगिया के पेड़ पर 
नीड़ इक झूलता हुआ 
महफूज़ थे जिसमें 
वो नन्हे से 
चिड़िया के बच्चे 
चोंच खोले आस में 
माँ के इंतज़ार में 
पाते ही आहट उसकी 
चहचहाते उमंग से 
उन नन्ही सी चोंचों को  
भर देती वह दानों से 
जो लाई  दूर से 
अपने नन्हों के लिए 
दिन पर दिन गुजरते गए 
घोंसला छोटा हुआ 
और बच्चे बढ़ते गए 
देखा इक दिन नीड़ 
बैठी चुपचाप वह 
भर ली 
उड़ान बच्चों ने 
रह गई  अकेली
सार यही जीवन का 
सार यही जीवन का 


रेखा जोशी 

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