Sunday, 5 April 2015

उम्मीद की इक आस

क्षितिज के उस पार
आस लिए सूरज की
देख रहे वो बच्चे
कुछ अर्द्धनग्न
कुछ मैले  कुचैले कपड़ों में
लिपटे हुए
टकटकी बांधे
निहार रहे शून्य में
एक आस लिए
कभी तो मुस्कुराये गी
धूप वहाँ पर 
कभी तो आयेगी
रोशनी वहाँ पर 
कभी तो जगमगाएँ गी
वह काली दीवारें
कभी तो खिलें गे
उम्मीदों के कमल 
चहकेगें वहाँ पर
सुन्दर रंग बिरंगे
पँछी 
हसें गे तब वह भी
सुन कर लोरियाँ
ख्वाबो के महल में
माँ की
ढेर सारी ख्वाहिशें लिये
मन में 
सो गये वह मन में 
उम्मीद की इक 
आस लिए

रेखा जोशी

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