बुझती नही
प्यास अंतर्मन की
है चाहत कुछ पाने की
इक तड़प उठती रह रह कर
अंतस में
दिये की लौ की तरह
है थरथराती
यह पीड़ा मन की
नहीं बाँध पाती शब्दों में
न जाने
क्या चाह रहा व्याकुल मनवा
लेकिन प्यास अनबुझ
अंतर्मन की
बढ़ती जा रही
रेखा जोशी
प्यास अंतर्मन की
है चाहत कुछ पाने की
इक तड़प उठती रह रह कर
अंतस में
दिये की लौ की तरह
है थरथराती
यह पीड़ा मन की
नहीं बाँध पाती शब्दों में
न जाने
क्या चाह रहा व्याकुल मनवा
लेकिन प्यास अनबुझ
अंतर्मन की
बढ़ती जा रही
रेखा जोशी
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