Saturday, 29 November 2014

सिसकियाँ सुलग रही

पतंग सी
उड़ती आकाश में
पल में कटी
धरा पे आन गिरी

बंद कमरों  में
दीवारों से टकराती
सिसकियाँ सुलग रही

अंगना में
बरस रही बदरी
भीतर
उठती ज्वाला सी
भीग रहे नयन
सीने में बुझाती रही
अश्रुधारा से चिंगारी

बाहर
फूल खिले गुलशन  में
मुस्कान ओढे
लब पे
हँसती गुनगुनाती रही

पतंग सी
उड़ती आकाश में
पल में कटी
धरा पे आन गिरी

रेखा जोशी

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