धर चंडी का
विकराल रूप
जल रही थी वह
बदले की आग में
कब तक
करती सहन वह
अपमान
तन मन आत्मा का
झेल रही थी वह
क्रूरता की परकाष्ठा
थी सुलग रही
भीतर ही भीतर
अब पोंछ लिए
नैनों से आँसू अपने
अंगारों से लगे
दहकने दो नयन उसके
क्रोध की अग्नि से
धधक उठी सीने में
लपटे ज्वाला की
कर स्वाहा बुझेगी
यह अग्नि नैनों की
जब फूट पड़ेगी बन
जलधारा नैनो की
रेखा जोशी
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