Monday, 24 November 2014

मत बैठो अपने पँख लपेटे

है होता दुःख
देख तुम्हे कैद
दीवारों में
जो बना रखी
खुद तुमने
अपने ही हाथों
खुद को
कैद कर लिया
क्यों पिंजरे में
मुहँ छिपाये
मत बैठो
अपने पँख लपेटे
कब तक
बुनते रहोगे जाल
अपने इर्द गिर्द
तोड़ दो अब
बंधन सब
भर लो उड़ान
फैला कर अपने पँख
उन्मुक्त
दूर ऊपर आकाश में
विश्वास
है तुम्हे खुद पर
जानते हो तुम
मंज़िल तुम्हारी
है उड़ान
उड़ना है तुम्हे
उठो
फैलाओं  पँख अपने
और
निकल पड़ो फिर से
ज़िंदगी की
इक
लम्बी उड़ान भरने

रेखा जोशी







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